
पर्यावरण रक्षण का अर्थ
(प्रकृति प्रेम nature love)
जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण से रक्षा करना एवं पृथ्वी का वातावरण शुद्ध और स्वच्छ बनाना आज नदियों का पानी सर्वाधिक प्रदूषित हो रहा है, गन्दे नालों का पानी, बड़े-बड़े नगरों के सीवर का पानी, कल-कारखानों का प्रदूषित एवं रासायनिक पदार्थों से युक्त अत्यन्त दूषित पानी नदियों में जा रहा है, आज नदियों का पानी पीने योग्य, आचमन करने एवं हाथ धोने लायक भी नहीं रहा है।
प्रकृति प्रेम nature love
विकास की अन्धाधुन्ध दौड़ में पर्यावरण सुरक्षा केवल एक नारा बनकर रह गया है। पेड़ों की कटाई से जंगल सिमट रहे हैं और भूमि बंजर बनने की ओर अग्रसर है।
ऐसे में अपना कर्त्तव्य बन जाता है कि इस अत्यन्त भयावह खतरे को हम समझ और समय रहते इसका निदान करें। आओ विचार करें कि शुद्ध जल की प्राप्ति हम कैसे कर सकते हैं, वायु को प्रदूषण मुक्त कैसे कर सकते हैं। ध्वनि प्रदूषण से कैसे मुक्ति मिल सकती है।
हमारा घर, हमारा विद्यालय किस प्रकार प्रकृति की गोद में रह सकता है इसका विचार आवश्यक है। प्रकृति का अर्थ सामान्यतः पेड़ पौधों से ही है, वृक्ष सदैव परोपकारी ही होते हैं, तभी तो कहा है
प्रकृति प्रेम पर कविता
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखें, नदी न संचे नीर परमारथ के कारने साधुन्ह धरा शरीर।।
पथिकों को तपती दुपहर में, पेड़ सदा देते हैं छाया।
सुमन सुगन्ध सदा देते हैं, हम सबको फूलों की माला।
त्यागी तरुओं के जीवन से, हम ऐसा कुछ करना सीखें।।
प्राकृतिक जीवन से कभी भी कोई बीमारी नहीं हो सकती तभी तो हमारे ऋषि मुनि हजारों वर्ष तक जीवन जीते थे।
हमारी संस्कृति, हमारे वृक्ष
भारतवर्ष विश्व का प्राचीनतम देश है, अतः भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। यहाँ समय-समय पर देवी देवताओं की पूजा तो होती ही रहती है, उनके साथ-साथ पर्वत, नदियों, पशु-पक्षियों, जड़ चेतन की भी पूजा होती रहती है। वृक्षों में चेतना तो है ही, साथ ही ईश्वर के भी दर्शन हमें होते हैं, ऐसी निराली हमारी संस्कृति है कि हम समय-समय पर वृक्षों की पूजा भी करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दशवें अध्याय में कहा कि वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ।
भारतीय संस्कृति में वृक्षों का पूजा जाना मात्र अन्ध हैं विश्वास नहीं है। यह वृक्षों की महत्ता के प्रति हमारे पूर्वजों की जागरुकता का प्रमाण भी है। वृक्षों में दिव्य और उपयोगी शक्तियाँ है। दिव्य और उपयोगी शक्तियों के प्रति पूज्य भाव से ओत-प्रोत रहना स्वाभाविक भी है। भारतीय साहित्य में इसके अनेक उदाहरण हैं।
इसमें वृक्षों को मानवीकरण करते हुए उनकी उपयोगिता बताई गई है।
इनके वैज्ञानिक महत्त्व को हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले ही परख लिया था तदनुसार ही इनके उपयोग तथा स्थान तक निर्धारित कर लिए गए थे। यथा तुलसी का पौधा घर आँगन में और नीम का पौधा घर के बाहर लगाया जाता है। पीपल के महत्त्व को भी बहुत पहले ही विशेष रूप से पहचाना गया। वह वृक्ष रूप में श्रीहरि का स्वरूप है, जो सर्वाधिक ऑक्सीजन प्रदान करता है।
इसी प्रकार भारतीय संस्कृति में वट वृक्ष भी देव-वृक्ष है।
ऐसी मान्यता है कि वट वृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा,मध्य में जनार्दन विष्णु तथा अग्र भाग में देवाधिदेव शिव रहते हैं। देवी सावित्री भी वट वृक्ष में निवास करती हैं। हमारी संस्कृति में तुलसी का सेवन कल्याणमय कहा जाता है, किन्तु कार्तिक में तुलसी की आराधना का विशेष महत्त्व है। एक ओर आयुर्वेद शास्त्र में तुलसी को रोगहर कहा गया है, वहीं दूसरी ओर यह यम दूतों के भय से मुक्ति प्रदान करती है। तुलसी वन पर्यावरण की शुद्धि के लिए भी महत्वा है। भगवती तुलसी विष्णु प्रिया भी कहलाती है।
भारतीय संस्कृति में ऑवला पूजन का भी महत्त्व है।
फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आँवले के वृक्ष के पास बैठकर पूजा का विधान है। कार्तिक मास में व्रत करने वाली स्त्रियाँ अक्षय नवमी को आँवले के वृक्ष के नीचे कार्तिकेय की कथा का श्रवण करती हैं। इसके पश्चात् ही कुँवारों, कुमारियों एवं ब्राह्मणों को आँवला वृक्ष के नीचे विधिवत् भोजन कराया जाता है। यदि कार्तिक मास को वर्तमान समय में देखा जाय तो विदित होता है कि तुलसी का पालन एवं पूजन, ऑवला वृक्ष का पूजन आदि होता है। इस प्रकार पर्यावरण शुद्ध होता है और मनुष्य प्रकृति प्रिय बनता है।
छोंकर का वृक्ष ।
छोंकर के वृक्षों का महत्त्व बल्लभ सम्प्रदाय में अधिक माना गया है। सर्वश्री बल्लभाचार्य जी और विट्ठलनाथ जी ने ब्रज में जो धार्मिक प्रवचन किये थे, वे प्रायः इन्हीं वृक्षों के नीचे बैठकर किये थे। तमाल के वृक्ष भी अनेक लीला स्थानों पर मिलते हैं। इसका उल्लेख ब्रज के भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण लीला के विविध प्रसंगों में किया है। उन्होंने श्रीकृष्ण के सांवले रंग की उपमा तमाल से देकर इस वृक्ष का महत्त्व और भी बढ़ा दिया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारी संस्कृति में अनेक वृक्षों की पूजा का विधान है और यह सब सार्थक एवं तार्किक हैं। वृक्ष हमारी संस्कृति में रचे बसे हैं। हमारी संस्कृति त्यागमयी संस्कृति है, इसी प्रकार वृक्ष भी स्वयं कुछ ग्रहण नहीं करते, जिस प्रकार कोई भी नदी स्वयं के लिए जल का संचय नहीं करती उसी प्रकार वृक्ष भी स्वयं ही अपने फलों का भक्षण नहीं करते।
देते हैं जो सदा विश्व को भोजन, जल, जीवन विश्वान्ति।
आधि देवता वृक्ष जड़ होकर भी मानव की हरते क्लान्ति ।।
वृक्ष हमारी थकावट को दूर करते हैं, हमें शीतल छाया प्रदान करते हैं, चाहे भले ही वे स्वयं धूप को झेलते हों। महर्षि चरक की ‘चरक संहिता’ में पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व की गहन विवेचना की गयी है। इसमें प्रत्येक पेड़-पौधों की जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते और अन्य भागों के औषधीय गुणों और उनसे रोगों के उपचार की विधियाँ वर्णित हैं। विषैला पौधा आक भी फोड़े-फुंसी के उपचार में सहायक होता है।
बहुत से पौधों के पुष्पों एवं फलों से हमारी संस्कृति में पूजा का विधान है। कदम्ब का पुष्प चित्त को एकदम प्रसन्न कर देता है। यह भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय पुष्प है। गुलाब, चम्पा, चमेली, जूही, बेला, रातरानी, केवड़ा, कुन्द, कमल, कनेर आदि के पुष्पों से देवी-देवताओं की पूजा का विधान है। इस प्रकार हमारी संस्कृति में हमारे वृक्ष-पौधों का विशेष महत्त्व हैं। यहाँ तक कि कड़वा नीम भी दाँतों को निरोग रखने में तथा अनाज को घुन से बचाने में सहायक है।
प्रदूषण मानवता के लिए नंगी तलवार
मनुष्य ने अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करते हुए प्रकृति पर शासन करने की महत्त्वाकांक्षा सदा से पाली है। प्रकृति ने उसे उज्ज्वल धूप, निर्मल जल, मनोरम हवा तथा मुक्त आकाश से वरदानित किया था किन्तु कथित प्रगति और सभ्यता की दौड़ में उसने प्रकृति के हर अंग और भंगिमा को कुरूप और प्रदूषित कर डाला है। माँ के समान अपने अनन्त स्नेह दान से जीव मात्र का पोषण करने वाली प्रकृति को आज्ञाकारिणी दासी बनाने की उद्दण्डता अब मानव को बहुत महँगी पड़ने वाली है। बाढ़, भूकम्प, महामारी, घातक विकिरण आदि संकटों के लिए आज का मानव ही उत्तरदायी है।
आज सृष्टि का कोई पदार्थ, कोई कोना प्रदूषण के प्रहार से नहीं बच पाया है। प्रदूषण मानवता के अस्तित्व पर एक नंगी तलवार की भाँति लटक रहा है। मानव ने सभी स्रोतों को दूषित कर दिया है। औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ हानिकारक कचरा और रसायन बड़ी बेदर्दी से इन जल स्रोतों से मिल रहे हैं। महानगरों के समीप से बहने वाली नदियों की दशा तो अकथनीय है।
गंगा, यमुना, गोमती सभी नदियों की पवित्रता प्रदूषण की भेंट गयी। इसके साथ-साथ वायु प्रदूषण बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा है। आज शुद्ध वायु का मिलना भी कठिन हो गया है। वाहनों, कारखानों और सड़ते हुए औद्योगिक कचरे ने वायु में जहर भर दिया है। प्रदूषित जल और वायु के बीच में पनपने वाली वनस्पति तथा उसका सेवन करने वाले पशु-पक्षी आज बीमार हो रहे हैं, भोजन भी प्रदूषण से नहीं बच सका है।
आज मनुष्य को ध्वनि के प्रदूषण को भी भोगना पड़ रहा है। कर्णकटु और कर्कश ध्वनियाँ भी मनुष्य के मानसिक संतुलन को बिगाड़ती हैं और उसकी कार्यक्षमताओं को कुप्रभावित करती हैं। वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति की कृपा के फलस्वरूप आज मनुष्य कर्कश, असहनीय और श्रवणशक्ति को क्षीण करने वाली ध्वनियों के बीच रहने को मजबूर है। आकाश में वायुयानों की कान फोड़ ध्वनियाँ, धरती पर वाहनों, यंत्रों और संगीत का मुक्त दान करने वाले ध्वनि-विस्तारकों का शोर, सब मिलाकर मनुष्य को बहरा बना रहे हैं। गंगा जल जो कि वर्षों तक शुद्ध रहने के लिए प्रसिद्ध था, वह भी हमारे कर्मों से गन्दा हो गया है।
पर्यावरण प्रदूषण पर ध्यान न देना मानव को भारी पड़ेगा।
प्रशासन और जन-साधारण दोनों को ही इस प्रलय संकेत से सावधान हो जाना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित यह अधम शरीरा।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु जीवन के ये पाँच तत्व हैं, जो प्रकृति में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, किन्तु प्रकृति से छेड़छाड़ करने के कारण इन तत्वों की मात्रा, स्वरूप तथा गुणवत्ता में निरन्तर ह्रास हो रहा है। पर्यावरण प्रदूषण व असंतुलन इसका परिणाम है। इस कारण मानव ही नहीं सम्पूर्ण प्राणी जगत को खतरा उत्पन्न हो गया है। पर्यावरण का संकट आज विश्व में गहराता जा रहा है।
वनस्पतियों की कमी से शुद्ध वायु का संकट
भारत के अतिरिक्त विश्व की सभी संस्कृति एवं सभ्यताओं में प्रकृति को निर्जीव तथा मनुष्य के उपयोग के लिए माना जाता है, इसके कारण पश्चिम में पेड़ों का विनाश हुआ। खनिज पदार्थों के खनन में भी सीमाओं का ध्यान नहीं रखा, इस कारण ऊर्जा संकट भी सामने विकराल रूप ले रहा है।
वनस्पतियों की कमी के कारण श्वसन के लिए उपयुक्त और पर्याप्त शुद्ध वायु का संकट उत्पन्न हो रहा है। रासायनिक द्रव्यों के अपशिष्टों से धरती एवं जल प्रदूषित हो रहा है। तापमान में वृद्धि और ओजोन पर्त में छेद इसी का परिणाम है। पाश्चात्य जगत के द्वारा इसका निराकरण होना सम्भव नहीं है।
प्रकृति परमेश्वर की शक्ति-
भारतीय संस्कृति में प्रकृति को परमेश्वर की शक्ति के रूप में आंका गया है। प्रकृति से खिलवाड़ या उपेक्षा विनाश का कारण बनेगी। देश की धरती को ‘अन्नवतां मोदनवतां आदि विशेषण से विभूषित किया गया है। मोदनवता कहते ही आनंद और सुख की सामग्री की अपेक्षा है। प्रकृति में परस्पर श्रेष्ठता पवित्रता तथा आत्मीयता का भाव है।
माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः कहा है। धरती को ‘विष्णु पत्नी’ कहा है। साथ ही ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ भी कहा है। अर्थात अकर्मण्यता, निष्क्रियता भारतीय संस्कृति में अपेक्षित नहीं, किन्तु अति भौतिकता की ओर मनुष्य उन्मुख न हो इसलिए त्यागमयी संस्कृति की कामना की गयी है।
सभी वनस्पतियों का औषधीय प्रयोग भारतीय संस्कृति में तथा आयुर्वेद के अनुसार एक भी वनस्पति विश्व में ऐसी नहीं हैं, जिसका औषधीय प्रयोग न हो। जो अत्यधिक उपयोगी तथा सहज सुलभ हैं, उन्हें देवताओं से सम्बन्धित कर दिया है, ऐसे वृक्ष व पौधों में कुछ हैं दूर्वा, तुलसी, पीपल, नीम, बरगद, बेल आदि विशेष रूप से दूर्वा को गणेश से, तुलसी विष्णु से, बेल शिव से, नीम देवी से सम्बन्धित माना है।
हरे वृक्षों को काटना, रात्रि के समय पेड़ों को हिलाना, फूल या पत्ती तोड़ना, आवश्यकता से अधिक या अनावश्यक रूप से लोभ के कारण पेड़ों को कष्ट पहुँचाना पाप है। पेड़ काटना पुत्र हत्या के समान है। इसके साथ ही एक वृक्ष लगाना उसका पोषण करना सौ पुत्रों के समान कल्याणकारी माना गया है।
वृक्ष धरा के हैं आभूषण।
करते हैं वे दूर प्रदूषण।।
नदियों के प्रति पवित्रता का भाव उसके प्रति उत्तरदायी भावना उनके श्रेष्ठ गुणों के कारण श्रद्धा व भक्ति भावना सहज ही उत्पन्न होती है। गंगा का जल कभी खराब नहीं होता। अन्य पवित्र नदियों का जल वर्ष भर खराब नहीं होता। साधारण नदियों का जल सप्ताह भर खराब नहीं होता, जबकि विश्व की अनेक नदियों का जल नदी से निकलने के पाँच-दस दिन बाद खराब हो जाता है। हिन्दू संस्कृति में स्नान करते समय निम्न मन्त्र बोला जाता है
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधं कुरु ।
वायु का बढ़ता ताप एवं विकृतियाँ- आज वायुमण्डल का ताप बढ़ रहा है, कुओं एवं तालाबों का पानी दूषित होता जा रहा है। वायुमण्डल में भी विकृतियाँ बढ़ रही हैं। औद्योगिक नगरों में तो वर्षा के प्रारम्भिक काल में तो अम्ल की वर्षा हो जाती है। जल तथा वायु को भारतीय जीवन में देवता रूप मानकर उनकी पूजा की जाती है।
हवन व यज्ञ उसी उपक्रम का अंग है, रूस के वैज्ञानिकों ने वर्षों पूर्व सिद्ध किया था कि गाय के गोबर के कण्डों में शुद्ध गोघृत के साथ बिना टूटे चावलों को जलाने से रेडियो धर्मी गुणों का निवारण होता है। इससे वायुमण्डल शुद्ध होता है। सूर्योदय के समय हवन करने का अत्यधिक महत्व है। आज वैज्ञानिक शोध भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं। इस कारण अनेक देशों में लाखों नागरिक भी घड़ी देखकर तीन, पाँच आहुति दे रहे हैं और हम उदासीन होते जा रहे हैं –
रक्त रंजित धरा न गगन चाहिए,
जानलेवा न हम को पवन चाहिए।
फूल आँगन में घर-घर महकते रहें,
खुशनुमा हमको अपना वतन चाहिए।।
आज सभी प्रकार के प्रदूषण रोकने तथा पर्यावरण को शुद्ध, पवित्र एवं लोक कल्याणकारी बनाने के लिए, भारतीय चिन्तन धारा तथा तथ्यों का प्रकाश आवश्यक है।
सम्पूर्ण प्रकृति से हमारा सारा जीवन जुड़ा है। संस्कृति ने विज्ञान के सत्य को हमारे सांस्कृतिक जीवन में ला दिया है। प्रकृति संस्कृति बन गयी है और संस्कृति हमारे जीवन की उदारता तथा मनुष्यता हम तीन बार ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः का उच्चारण भूलोक भुवलोक अर्थात् धरती, अन्तरिक्ष तथा सूर्य लोक में तनाव मुक्त शान्ति की कामना के लिए करते हैं, इस दृष्टि से प्रकृति पर आधारित भारतीय संस्कृति वस्तुतः विश्व संस्कृति है।