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प्राथमिक चिकित्सा PRIMARY FIRST AID

प्राथमिक चिकित्सा PRIMARY FIRST AID

प्राथमिक चिकित्सा का तात्पर्य उस चिकित्सा या उपचार से है जो दुर्घटना हो जाने पर डॉक्टर के आने के पूर्व रोगी को दी जाती है। चोट लगना अन्य सामान्य घटनाओं की ही भाँति है। प्रायः खेलते काम करते, सड़क पर चलते या किसी अन्य प्रकार से दुर्घटना हो सकती हैं। कभी-कभी मोच आना, हड्डी खिसकना हड्डी टूटना, खून बहना, जहरीले जीव जन्तुओं का काटना, जैसी अनेक दुर्घटनाएँ हो जाती है। इससे लोगों को अनेक कष्ट एवं परेशानी का सामना करना पड़ता है।

ऐसी अवस्था में यदि डाक्टर की सहायता तुरन्त न मिल सके तो रोगी की जान भी जा सकती है। ऐसी स्थिति में प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान किसी व्यक्ति के जीवन की रक्षा कर सकता है। प्राथमिक चिकित्सा कहलाती है। प्राथमिक चिकित्सा के मुख्य रूप से तत्कालीन व्यवस्था ही प्राथमिक उपचार या तीन उद्देश्य हैं।

1.  प्राथमिक चिकित्सा का पहला कार्य है कि रोगी के रोग एवं उसके दर्द को रोकना यदि संभव हो तो उसके दर्द एवं तकलीफ को न्यूनतम स्थिति में लाने का प्रयास करना चाहिए। खून बहना, कट जहरीले जीव के काटने पर इस प्रकार की कुछ आकस्मिक घटनाओं की स्थिति में रोगी पर तुरंत ध्यान देना चाहिए।

2.   आकस्मिक दुर्घटनाओं में छोटी एवं सामान्य चोट इत्यादि को छोड़कर डाक्टर की सलाह एवं इलाज अवश्य लेना चाहिए और डाक्टर के आने तक रोगी की देखभाल करनी चाहिए। यदि समझ न आये तो रोगी को छूना नहीं चाहिए। इससे उसकी तकलीफ और अधिक बढ़ सकती है। प्राथमिक सहायता बॉक्स (First Aid Box) प्राथमिक सहायता बॉक्स, स्काउट गाइड के प्रत्येक दल के पास होना चाहिए. दल एवं टोली के अलावा कुछ दवाएँ एवं सामान प्रत्येक स्काउट एवं गाइड के पास अपना व्यक्तिगत भी अवश्य होना चाहिए। जैसे- सामान्य दवाएँ, पट्टी, हैंडी प्लास्ट, कैंची, ब्लेड आदि।

3.   प्राथमिक चिकित्सा की आवश्यक सामग्री घर अथवा विद्यालय में एक प्राथमिक चिकित्सा बॉक्स होना चाहिए उस प्राथमिक बॉक्स में निम्नलिखित

सामग्री का होना अनिवार्य हैं।

(1) डिटोल (2) बैंड एड (एक दर्जन) (3) पोटेशियम परमैंगनेट (4) खाने का सोड़ा (5) सोफ्रामाइसिन (6) आयोडेक्स (7) स्प्रिंट (8) पुदीन हरा (9) बोरिक एसिड (10) विक्स (11) मरकरी क्रीम (12) खाने का नमक (13) ग्लिसरीन (14) चिपकना प्लास्टर (15) पट्टी (16) मोच आदि के स्प्रे (17) ऊँची (18) चिमटी (19) खपच्चियां (20) क्रॅप बैंडेज (21) ब्लेड (22) मूव (23) धर्मामीटर (24) फेन टेबलेट (25) एसीलाक टेबलेट्स (26) पैरासीटामॉल (27) इलैक्ट्रॉल (28) आयोडीन

कट जाने पर प्राथमिक उपचार –

कटना एक सामान्य घटना है। किसी धारदार वस्तु से काम करते समय अथवा किसी अन्य कारण से कट जाने या खरोंच लग जाने पर हाथ या शरीर के किसी भाग की त्वचा कट जाती है अथवा त्वचा छिल जाती है। काटने वाली वस्तु की धार में कुछ हानिकारक जीवाणु भी हो सकते है। यदि ये जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तो यह शरीर के लिए हानिकारक हो सकते हैं और रोगी को कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।

इसको रोकने के लिये। सर्वप्रथम घाव की सफाई की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिस वस्तु से हम घाव को छूते हैं वह बिल्कुल साफ होनी चाहिए। हमारे हाथ एवं नाखून पूरी तरह साफ होने चाहिए। घाव पर लोशन, डिटॉल युक्त पानी अथवा अच्छी तरह उबालकर ठण्डा किया हुआ पानी का प्रयोग करना चाहिए। घाव को साफ पानी से अन्दर से बाहर की ओर धोना चाहिए। व क उपचार हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

1. खून के बहने को बन्द करना।

2. घाव को साफ करना।

3. घाव को जहरीला होने से रोकना।

4. घायल अंग को आवश्यकतानुसार सहारा देना।

5. सदमा होने पर उपचार करना।

जलना या झुलसना- जलना या झुलसना दोनों ही स्थितियाँ बहुत कष्टदायक होती हैं। किसी गर्म वस्तु, आग, तेजाब या गर्म लोहा इत्यादि से शरीर के किसी भाग का सम्पर्क होता है, तो वह भाग जल जाता है अथवा झुलस जाता है, ऐसी अवस्था में हम कहते हैं कि जल गया या झुलस गया है। किसी गर्म पदार्थ के शरीर पर गिरने की अवस्था में शरीर झुलस जाता है। इससे त्वचा पर फफोले पड़ हैं। इस दशा में शरीर को काफी दर्द होता है। इस प्रकार की स्थिति हो जाने पर रोगी का निम्न प्रकार से उपचार करना चाहिए।

उपचार रोगी के जलने या झुलसने पर

सबसे पहले रोगी के सदमे का उपचार करना चाहिए। यदि रोगी ने कपड़ा पहन रखा है तो उसका जले भाग का कपड़ा सावधानी पूर्वक उतारें। यदि कपड़ा चिपक गया है तो उसे सावधानी पूर्वक छुड़ाना चाहिए। इसमें ऊँची का उपयोग करना चाहिए। जितना भाग काटा जा सकता है उसे काटकर सावधानीपूर्वक अलग कर देना चाहिए। शेष भाग को लगा रहने देना चाहिए।

शरीर का भाग जो जला है, उसे हवा से बचाना चाहिए। छालों (फफोलों) को फोड़ना नहीं चाहिए, शरीर के जले भाग को ठण्डे पानी में भिगोकर रखना चाहिए। तब तक भिगोकर रखें जब तक उसकी जलन, शांत नहीं हो जाती। आवश्यकता अनुसार पानी को बदलते रहें, जले भाग पर टेनिक एसिड लगाकर हल्की पट्टी भी बाँध सकते हैं। अंडे की सफेदी जलने का अचूक इलाज है। कच्चा आलू पीसकर लगाने पर भी आराम मिलता है। जलने वाले भाग पर स्प्रे करना चाहिए।

मोच आना-

शरीर में हड्डियों को अपने स्थान पर ही रखने के लिए प्रकृति ने उन्हें जोड़ों पर तन्तुओं द्वारा कस रखा है। ये तन्तु विभिन्न अंगों को एक सीमा के अंदर ही मुड़ने या घूमने देते हैं। यदि अचानक कभी कोई अंग जैसे- पैर का पंजा अथवा हाथ का पहुँचा मुड़ या घूम जाता है तो जोड़ के तन्तु टूट जाते हैं। इसी को मोच आना कहते हैं। इससे असह्य पीड़ा होती है। मोच आ जाने पर जोड़ और उसके पास की माँसपेशियों में बड़ी पीड़ा होती है। जोड़ पर सूजन आ जाती है और भाग नीला हो जाता है। जोड़ जकड़ जाता है और उसकी हरकत बन्द हो जाती है।

उपचार-

मोच आये स्थान पर गर्म तथा ठण्डे पानी की पट्टियाँ बारी-बारी से पाँच-पाँच मिनट रखें। हैजा हैजा एक अति भयंकर तथा शीघ्र फैलने वाला संक्रामक रोग है। यह गर्मी तथा बरसात के मौसम में अधिक फैलता है।

मेले तथा तीर्थ स्थानों पर जहाँ अधिक लोग एकत्र होते हैं, इस रोग के फैलने की अधिक आशंका रहती है। इस रोग के कारण प्रतिवर्ष हजारों व्यक्ति मृत्यु का शिकार होते हैं।

रोग का कारण तथा फैलना

हैजा रोग की उत्पत्ति का मुख्य कारण एक जीवाणु है, इसको विब्रियो कॉलेरी (Vibrio Cholera) कहा जाता है। यह रोगाणु अति सूक्ष्म होता है इसका आकार अर्द्ध-विराम (,) के समान होता है। ये बैक्टीरिया पानी में अधिक पनपते हैं तथा अधिक गर्मी व अधिक ठंड में ये जीवित नहीं रह पाते। ये बैक्टीरिया एक स्थान से दूसरे स्थान तक मुख्य रूप से मक्खियों द्वारा पहुँचते हैं। रोगी व्यक्ति के मल, वमन आदि पर मक्खियाँ बैठती हैं तब रोग के असंख्य बैक्टीरिया इनकी टांगों एवं पैरों से चिपक जाते हैं। इसके बाद ये मक्खियाँ उड़कर हमारे भोजन एवं खाद्य सामग्री पर बैठती हैं तथा बैक्टीरिया छोड़ देती है। ऐसे भोजन को ग्रहण करने से रोग का संक्रमण होता है।

अवधि

यह रोग संक्रमण के समय से लेकर कुछ घंटों में ही विकराल रूप धारण कर सकता है, किन्तु कभी-कभी रोग के लक्षण प्रकट होने में दो तीन दिन का समय भी लग जाता है।

हैजा के लक्षण

हैजे का प्रभाव होते ही व्यक्ति वमन तथा दस्त करने लगता है हैजे के रोगी का दस्त चावल के मॉड जैसा सफेद तथा पतला होता है। दस्त एवं वमन के परिणाम स्वरूप रोगी शीघ्र ही दुर्बल हो जाता है तथा उसके शरीर में ऐंठन सी होने लगती है। चेहरे की कांति समाप्त होने लगती है तथा आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ जाते हैं। शरीर में जल की कमी होने से रोगी की नाड़ी की गति मंद हो जाती है। यदि उचित उपचार न किया जाय तथा औषधि न दी जाय तो रोगी की मृत्यु भी हो सकती है।

हैजा का उपचार

हैजे के रोगी को प्रारम्भ में प्याज का अर्क तथा अमृतधारा जैसी दवा दी जा सकती है। रोगी को पर्याप्त आराम मिलना चाहिए। साथ ही उसके शरीर में जल की कमी न होने पाये, इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए। भोजन बिल्कुल नहीं देना चाहिए थोड़ा आराम हो जाने पर संतरे का रस, जौ का पानी तथा गाय का दूध पानी मिलाकर दिया जा सकता है।

हैजा से बचाव के उपाय

हैजा के प्रकोप से बचने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।

1. हैजे के टीके नियमित रूप से अवश्य लगवाने चाहिए।

2. यदि कोई व्यक्ति इस रोग से पीड़ित हो जाए तो उसे शीघ्र ही सबसे अलग रखने की व्यवस्था करनी चाहिए।

3. हैजा फैलते ही तालाब, नदी तथा कुँए के पानी को उबालकर तथा छानकर पीना चाहिए।

4. हैजे से बचने के लिए मक्खियों से बचना चाहिए। अतः मक्खियों को समाप्त करने अथवा उनसे बचने के उपाय करने चाहिए।

5. रोगी के मलमूत्र, वमन तथा थूक आदि को मिट्टी के बर्तन में डालकर जमीन में गाड़ देना चाहिए।

6. रोग के फैलने के दिनों में बाजार में उपलब्ध कटे हुए फल, बिना ढकी मिठाइयां आदि का सेवन बिल्कुल नहींकरना चाहिए।

7. दूध एवं पानी को उबालकर ही पीना चाहिए।

अतिसार रोग

जल तथा भोजन के माध्यम से फैलने वाला एक संक्रामक रोग अतिसार (Diarrhoea) भी है। यह रोग भी पाचन तंत्र से ही सम्बन्धित है। इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक होता है तथा यह बच्चों में ही अधिक पाया जाता है। बड़ों को यह रोग यदा-कदा होता है।

अतिसार रोग फैलने के कारण

अतिसार रोग के फैलने के निम्न कारण हैं

1. इस रोग का प्रमुख कारण एक जीवाणु होता है। इसके संक्रमण से बच्चों में प्रायः यह रोग हो जाया

2. दूषित जल के सेवन से भी यह रोग हो सकता है।

3. इस रोग के संक्रमण में मक्खियों की विशेष भूमिका होती है।

4. निरंतर अपच रहने से भी अतिसार का रोग हो सकता है। समय-असमय भोजन ग्रहण करने अर्थात भोजन में अनियमितता होने से भी यह रोग हो सकता है।

अतिसार रोग के लक्षण-

1. रोग के शिकार हुए व्यक्ति को निरंतर दस्त होते हैं, एक दिन में इनकी संख्या 20-25 तक भी हो सकती है।

2. अतिसार में होने वाले दस्त अत्यधिक पतले तथा प्रायः हरे रंग के होते हैं।

3. निरंतर दस्त होने की स्थिति में मल के साथ रक्त का स्राव भी हो सकता है।

4. दस्त न रुकने की स्थिति में रोगी के शरीर में जल की कमी भी हो सकती है।

5. कुछ रोगियों को संक्रमण एवं दुर्बलता के कारण हल्का ज्वर भी हो सकता है।

बचाव के उपाय तथा उपचार-

1. जल को उबालकर पीना चाहिए। बच्चों को गाय, भैंस का दूध सदैव उबालकर ही देना चाहिए।

2. बर्तनों की सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

4. बच्चों की सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

5. रोग हो जाने की स्थिति में गरिष्ठ भोजन नहीं देना चाहिए। हल्का, तरल तथा सुपाच्य भोजन देना चाहिए।

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