साहस एवं शौर्य: courage and bravery
जीवन में प्रत्येक परिस्थिति का निर्भयतापूर्वक सामना करना हो साहस है संकट काल में वीर पुरुष ही धैर्य एवं साहस से अपना मार्ग निश्चित करते हैं। अन्याय का प्रतिकार करना भी वीरता का लक्षण है।
हम वीरों की सन्तान हैं, इसलिए हमें निडर होकर अपने कार्य साहस के साथ करने चाहिए। हमारा जन्म इस देश को सुरक्षा के लिए, इसे आगे बढ़ाने के लिए, इसे विश्व में सिरमौर बनाने के लिए हुआ है।
इसलिए हम भी वीर अभिमन्यु, लवकुश, रानी लक्ष्मी बाई, हाड़ारानी व गुरू गोविन्द सिंह के पुत्रों के समान साहसी बनकर इस देश को सुखी और सम्पन्न बनाने का कार्य करेंगे।
हम विद्यालय में बहुत से साहसिक प्रदर्शनों में हिस्सा लेते हैं। अग्निचक्र, नियुद्ध आदि का अभ्यास करने और अपने अन्दर साहसिक कार्य करने की इच्छा को बलवती बनायेंगे।
हम इसी प्रकार साहस एवं शौर्य को गाथा के बारे में उदाहरण स्वरूप कुछ महापुरुषों के विषय में इस अध्याय में जानेंगे।
वीर बालक साँवल्या
यह प्रसंग उस समय का है जब महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज राज्य करते थे। शिवाजी एक दक्ष प्रजापालक राजा थे। वे प्राय: वेश बदलकर राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा को सुख-सुविधाओं की व्यवस्था अपनी आँखों से देखते थे।
एक बार जब वे वेश बदलकर घोड़े पर सवार होकर राज्य की सीमा के पास पहुंचे तब अचानक एक बालक हाथ में तलवार लिए उनके सामने आ खड़ा हुआ और ऊँचे स्वर से ललकारा- तुम कौन हो ? हमारी सीमा पार करने का तुम्हें साहस
कैसे हुआ ? सावधान ! एक कदम भी आगे बढ़े तो तुम्हारे शरीर के दो टुकड़े कर दूंगा। शिवाजी बालक की परीक्षा लेना चाहते थे। उन्होंने कहा “ठीक है, हो जाएं दो-दो हाथ”।
बालक तनिक भी नहीं घबराया। बिजली की फुर्ती से उसने तलवार उठाई और बड़े साहस के साथ शिवाजी की ओर लपका। शिवाजी ने वार बचाकर ऐसा काट मारा कि उसकी तलवार हाथ से छूट गयी बालक तलवार उठाने को दौड़ा और उधर शिवाजी ने घोड़े को ऐड़ लगाई। पल भर में ही वह आँखों से ओझल हो गए। बालक घोड़े के पैरों से उड़ती हुई धूल को देखता रह गया।
शिवाजी ने राजधानी पहुँचकर उस बालक को बुलावा भेजा। राज्यसभा में उपस्थित होकर बालक ने देखा कि राज्य सिंहासन पर बैठे व्यक्ति शिवाजी महाराज हैं और उनसे ही उसकी मुठभेड़ हुई है। शिवाजी ने उसे अपने निकट बुलाकर पूछा- वीर बालक! तुम्हारा नाम ? उत्तर मिला, साँवल्या।
शिवाजी ने साँवल्या को अपनी सेना में ले लिया। उस वीर ने वहाँ भी अपनी योग्यता से कुछ ही समय में ऊँचा पद से प्राप्त कर लिया।
हाड़ा रानी
अभी विवाह की मेंहदी भी न उतर पायी थी कि डंके पर चोट सुनाई दी। युद्ध के नगाड़े बजने लगे। चूड़ावत एक अद्वितीय वीर था। उसका विवाह हाड़ा रानी के साथ हुआ था। चूड़ावत को रणक्षेत्र की ओर कूच करना था परन्तु वह रानी की
सुन्दरता तथा मोहपाश में ऐसा फैसा कि युद्ध में जाना नहीं चाहता था। उसने रानी के पास सन्देश भेजा “मेरी प्यारी रानी! मैं तुम्हें छोड़कर युद्ध में नहीं जाऊँगा”। वीर क्षत्राणी हाड़ा रानी को बहुत बुरा लगा। उसने कहा नाथ आप तलवार मुझे दे दें। मैं रणभूमि में जाकर युद्ध करूँगी। अच्छा रहेगा।
कि आप हाथों में चूड़ियाँ पहनकर यहाँ रहें। रानी के वचनों से मर्माहत चूड़ावत युद्ध में जाने को तैयार हो गया। थोड़ी दूर जाकर फिर उसके पैर थम गए। उसने घर में सैनिक भेजकर हाड़ा रानी की निशानी मँगवाई।
रानी समझ गई मेरे कारण ही राजा का मन डाँवाडोल हो रहा है। उसने झट से तलवार उठाई और यह ले जाओ, कह कर अपना सिर काट दिया। सैनिक रानी का सिर थाल में रखकर चूड़ावत के पास ले गया। चूड़ावत ने जब हाड़ा रानी का कटा हुआ सिर देखा तो वह सिहर तथा सहम गया फिर उस सिर को हाथ में लेकर वह युद्ध स्थल की ओर चला।
युद्ध में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया और विजय भी प्राप्त की। तत्पश्चात् सरदार चूड़ावत ने रानी के साथ ही आत्मोत्सर्ग कर दिया। राजस्थान के कण-कण में हाड़ा रानी के बलिदान की गाथा सुनी जा सकती है। धन्य हैं भारत की वीरांगनाएँ।
मनु
ज्येष्ठ मास में (गंगा दशहरा का पर्व) काशी के घाटों पर नर-नारियों की अपार भीड़। पेशवा बाजीराव द्वितीय के अनुज और उनके गृह-प्रबन्धक मोरोपन्त ताम्बे मोर पंखी नौका पर सवार होकर दशहरे की बहार लूट रहे थे। मोरोपंत की 6-7 वर्ष की चपल चंचल कन्या नाव की दूसरी मंजिल पर बैठी तैरते हुए लड़कों को देख रही थी।
सहसा शोर मचा मगरमच्छ मगरमच्छ और सचमुच 12 वर्ष के लड़के की बगल में एक मगरमच्छ उसी घाट के पास उभर आया। सभी तैराक छिटक-छिटक कर दूर जाने लगे किन्तु वह बालक अपनी बगल में मगरमच्छ को देखकर सन्त रह गया। उसके हाथ-पैर अवश हो गए और बालक डूबने लगा।
हजारों आदमियों ने यह दृश्य देखा। बड़े-बड़े वीर बाँकुरों ने देखा, कुशल तैराकों ने देखा, पेशवा के अनुज और उसके नौकरो-चाकरों ने देखा। किन्तु बालक को बचाने के लिए उसके पास जाने का साहस किसी को नहीं हुआ। साहस किया उस 6-7 वर्ष की बालिका मनु ने। काछा तो उसने कस ही रखा था, मोरपंखी की दूसरी मंजिल से झम्म करके गंगा में कूद गयी।
लोग हा-हा करते रह गए, किन्तु वह अपने नन्हें हाथ फेंकती उस बालक के पास पहुँच गयी और उसे सहारा दिया। बालक ने भी हिम्मत बाँधी और दोनों देखते-देखते तैर कर किनारे लगे। मोरोपन्त ने नौका से कूदकर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया। यह साहसी मनु आगे बनी झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ।
सरदार बल्लभ भाई पटेल
एक ग्रामीण बालक को एक फोड़ा निकला। उन दिनों देहातों में डाक्टरी इलाज का चलन नहीं हुआ था। मामूली जानकार लोग ही इलाज करते थे। फोड़ों का इलाज उसे लोहे की गर्म सलाखों से दागकर किया जाता था। बालक के फोड़े के इलाज के लिए देहाती वैद्य ने यही इलाज बताया। जब लाल सलाखों से दागने का समय आया तब बालक की अत्यन्त छोटी
आयु देखकर वैद्य ठिठक गया कि कहीं और कुछ गड़बड़ न हो जाए। पर तभी बालक ने कहा – लोहा ठंडा हुआ जा रहा है। आप को डर लगता है तो मुझे आज्ञा दीजिए। मैं अपने आप ही अपना फोड़ा जला लूँगा। देखने वाले दंग रह गए। बालक का फोड़ा कई जगह से जलाया गया पर उसके चेहरे पर शिकन तक न आई। यही बालक आगे भारत की एकता को पुष्ट करने वाला नेता हुआ सरदार वल्लभ भाई पटेल।
मनीषा
तैराकी सीखना सिर्फ शौक नहीं है, कई बार यह मौत से बचने बचाने का उपाय भी बन जाता है। यह बात सिद्ध हुई। महाराष्ट्र में कोलाबा जिले के पनवेल गाँव में यहाँ डा. नीलकान्त विष्णु बापट की पुत्री कुमारी मनीषा बापट ने तैरना सीखा। साढ़े दस साल की मनीषा को अभी तैराकी सीखे कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन उसकी परीक्षा की घड़ी आ गई। मनीषा उस परीक्षा में खरी उतरी।
मनीषा अपनी माँ के साथ तालाब में तैरने गयी थी। तैरते-तैरते वह उस पार पहुँच गई। थक गई थी, इसलिए कुछ देर सुस्ताने के लिए वहीं सीढ़ियों पर बैठ गई। मनीषा को वहाँ बैठे कुछ ही क्षण हुए थे कि अचानक उसे माँ के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। हुआ यह कि आठ वर्षीय उसकी बहिन भावना भी तैराकी सीख रही थी। उसे सीखते हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे। भावना जैसे ही तैरने के लिए
पानी में कूदी कि डूबने लगी। उसे डूबता देख उसकी माँ ने जोर से चिल्लाना शुरू किया। माँ की आवाज सुनकर पहले तो मनीषा कुछ समझी नहीं, लेकिन भावना को डूबता देखकर वह सब समझ गई। मनीषा तुरन्त पानी में कूद पड़ी। वह तेजी से तैरती हुई गयी और भावना को पकड़ कर किनारे ले गयी।
यद्यपि बाद में मनीषा की माँ भी सहायता के लिए पहुंच गई थी, यदि उस क्षण मनीषा ने भावना को न बचाया होता तो दुर्घटना अवश्य हो जाती।
रानीबाई
सिन्ध के शासक दाहिर के समय से भारतवर्ष पर मुस्लिमों के आक्रमण प्रारम्भ हुए बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार सन् 712 ई० में मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध के राजा दाहिर पर आक्रमण कर दिया। दाहिर ने डट कर सामना किया। उस भयंकर युद्ध में राजा दाहिर रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ।
पति की मृत्यु के पश्चात् दाहिर की वीर पत्नी रानीबाई ने युद्ध की कमान सँभाल ली और शत्रुओं से युद्ध जारी रखा। उसने अपनी वीरता और उत्साह से सेना के मनोबल को भी ऊँचा बनाए रखा; परन्तु अरब आक्रान्ताओं की संख्या बहुत अधिक थी।
इसलिए रानीबाई को जब यह प्रतीत होने लगा कि युद्ध का परिणाम प्रतिकूल होने वाला है तो महल की समस्त स्त्रियों को एकत्र कर अपना अन्तिम निर्णय सुनाते हुए कहा- शत्रु युद्ध में विजय की ओर अग्रसर है।
इससे पूर्व कि शत्रु किले पर अधिकार करे और हमें परतन्त्र बनाकर स्पर्श करें, हमें विशाल अग्निकुण्ड में अपने को समर्पित कर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
रानीबाई की बात का सभी वीरांगनाओं ने समर्थन किया और विशाल अग्नि कुण्ड में सर्वप्रथम रानीबाई धधकती ज्वालाओं के बीच कूद पड़ी और सभी स्त्रियों ने उनका अनुसरण कर अपने सतीत्व की रक्षा की।
वीर बालक पुत
एक समय दिल्ली का मुगल बादशाह अकबर बहुत बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ जीतने आया। चित्तौड़ के राजा उदयसिंह यह देखकर डर के मारे चित्तौड़ छोड़कर दूसरी जगह भाग गए और उनका सेनापति जयमल शहर को रक्षा करने लगा, पर एक रात को दूर से अकबर शाह ने उसे गोली से मार डाला।
चित्तौड़ निवासी अब एकदम घबरा उठे, पर इतने में हो चित्तौड़ का एक बहादुर लड़का स्वदेश की रक्षा के लिए मैदान में आ गया।
उसी बालक का नाम पुत्त था। उसकी उम्र केवल 16 वर्ष की थी। पुत था तो बालक, पर बड़े-बड़े बहादुर आदमियों के समान वह बड़ा साहसी और बलवान था। उसकी माता, बहन और स्त्री ने युद्ध में जाने के लिए उसे खुशी से आज्ञा दे दी। यही नहीं वे भी उस समय घर में न बैठकर हथियार लेकर अपने देश की रक्षा के लिए बड़े उत्साह के साथ युद्ध भूमि में जा पहुंचे।
अकबर की सेना दो भागों में बँटी थी। एक भाग पुत्त के सामने लड़ता था और दूसरा भाग दूसरी ओर से पुत्त को रोकने के लिए आ रहा था। यह दूसरे भाग की सेना माँ, पत्नी और बहिन का पराक्रम देखकर चकित हो गयी। दोपहर के दो बजते-बजते पुत्त उनके पास पहुंचा, क्या है कि बहिन लड़ाई में मर चुकी है, माता और स्त्री बन्दूक की गोली खाकर जमीन पर तड़प रही हैं।
पुत्त को पास देखकर माता ने कहा बेटा हम स्वर्ग जा रही है। तू लड़ाई करने जा लड़कर जन्मभूमि की रक्षा कर या मर कर स्वर्ग में आकर हमसे मिलना इतना कहकर पुत्त की माँ ने प्राण छोड़ दिए।
पुत्त की पत्नी ने भी स्वामी की ओर धीर भाव से एकटक देखते हुए प्राण त्याग दिए। पुत्त अब विशेष उत्साह और वीरता से फिर शत्रु सेना का मुकाबला करने लगा।
माता की मरते समय की आज्ञा पालन करने में इसने तनिक भी पर पीछे नहीं किए, और जन्मभूमि के लिए लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिए। इस प्रकार इस एक ही घर के चार वीर नर-नारी स्वर्ग सिधारे और उनकी कीर्ति सदा के लिए. इस संसार में अमर हो गई।
साहसी व कर्त्तव्य परायण बालक से प्रभावित हुए चीफ जस्टिस
सन् 1885, पूना के न्यू इंग्लिश हाईस्कूल में समारोह था। व्यवस्था की दृष्टि से कार्य का विभाजन हुआ। द्वार पर एक स्वयंसेवक को इसलिए नियुक्त किया गया कि आने वाले अतिथियों का निमंत्रण पत्र देखकर अन्दर आने और सभा स्थल पर यथा स्थान बैठाने की व्यवस्था करे।
इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (चीफ जस्टिस ) महादेव गोविन्द राना है। जैसे ही विद्यालय के मुख्य द्वार पर वे पहुँचे, वैसे ही स्वयंसेवक अगवानी कर उन्हें अन्दर से ले जाने लगे, तभी द्वार पर तैनात स्वयंसेवक ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया।
बड़ी ही विनम्रता से उसने पूछा ” श्रीमन् आपका निमन्त्रण पत्र ? ” बेटे मेरे पास तो कोई निमन्त्रण पत्र नहीं है।
” राना डे ने कहा क्षमा करें, तब आप अन्दर प्रवेश नहीं कर सकेंगे। अन्य स्वयंसेवकों ने आपत्ति की। द्वार पर राना डे को रुका देख स्वागत समिति के सदस्य दौड़ते हुए आये और उन्हें अन्दर ले जाने लगे। कर्त्तव्य परायण उस स्वंयसेवक ने कहा-
“स्वागत समिति के सदस्य ही यदि मेरे कार्य में अवरोध उपस्थित करेंगे तो मैं अपने दायित्त्व का निर्वाह कैसे कर पाऊँगा ? भेद-भाव की नीति मुझे अच्छी नहीं लगती। राना डे ये सब बातें सुन रहे थे। वे उस बालक के साहस, दायित्व बोध तथा कर्त्तव्य निष्ठा से प्रभावित हुए।